Lekhika Ranchi

Add To collaction

कपाल कुंडला--बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय


:५: समुद्रतट पर

“...योगप्रभावो न च लक्ष्यते ते।
विभर्षि चाकारमनिर्वृतानां मृणालिनी हैममिवोपरागम्॥”
—रघुवंश।

सबेरे उठते ही नवकुमार सहज ही उस कुटी से बाहर निकलकर घर की राह खोजने के लिए व्यस्त होने लगे, विशेषतः इस कापालिक का साथ किसी प्रकार भी उन्हें उचित न जान पड़ा। फिर भी, इस पथहीन जङ्गल से निकल ही कैसे सकते हैं? कापालिक अवश्य ही राह जानता है। क्या पूछने से बता न देगा? विशेषतः अभी जहाँ तक देखा गया है, कापालिक ने उनके प्रति कोई शंकासूचक आचरण नहीं किया है। फिर, वह इतना क्यों डरते हैं? इधर कापालिक ने मना किया है, कि जब तक फिर हमसे मुलाकात न हो, इस कुटी से कहीं न जाना। हो सकता है उसकी आज्ञा न मानने से उसके क्रोध का भाजन बनना पड़े। नवकुमार ने सुन रखा है कि कापालिक असाध्य कार्य कर सकते हैं। अतः ऐसे पुरुष की अवज्ञा करना अनुचित है। इस तरह सोच-विचार कर अन्त में कापालिक की कुटी में ही रहने का निश्चय किया।

लेकिन धीरे-धीरे तीसरा प्रहर आ गया। फिर भी, कापालिक न लौटा। एक दिन पहले का उपवास और इस समय तकका अनशन नवकुमार की भूख फिर प्रबल हो उठी। कुटी में जो कुछ फलमूल था, वह पहले ही समाप्त हो चुका था। अब बिना आहारा थे फलमूल खोजे काम नहीं चल सकता। बिना फल की खोज किये काम नहीं चलता, कारण भूख भयानक रूप से उभड़ चली थी। शाम के होने में जब थोड़ा समय रह गया, तो अन्त में फल की खोज में नवकुमार को बाहर निकलना ही पड़ा।

नवकुमार ने फल की खोज में समीप के सारे स्तूपों का परिभ्रमण किया। जो एक-दो वृक्ष इस बालू पर उगे थे, उनसे एक तरह के बादाम के जैसा फल मिला। खाने में वह फल बहुत ही मीठा था, अतः नवकुमार ने भरपेट उसे ही खाया।

उस भाग में रचित बालुका स्तूप थोड़ी ही तादाद में थे, अतः थोड़ी देर के परिश्रम से ही नवकुमार उसे पार कर गये। इसके बाद ही वह बालुकाहीन निविड़ जंगल में जा पड़े। जिन लोगों ने इस तरह के जंगलका परिभ्रमण किया है, वे जानते हैं कि ऐसे जंगल में थोड़ा घुसते ही लोग राह भूल जाते हैं। वही हाल नव-कुमार का भी हुआ। थोड़ी दूर जाते ही उन्हें इस बात का ध्यान न रहा कि उस कुटी को वह किस दिशा में छोड़ गये हैं। गम्भीर समुद्र का गर्जन उन्हें सुनाई पड़ा। वह समझ गये कि निकट ही समुद्र है। इसके बाद ही वे उस जंगल से बाहर हुए और सामने ही विशाल समुद्र दिखाई दिया। अनन्त विस्तृत नीलाम्बुमण्डल सामने देखकर नवकुमार को अपार आनन्द प्राप्त हुआ। सिकता-मय तटपर जाकर वह बैठ गये। सामने फेनिल, नील अनन्त समुद्र था। दोनों पार्श्व में जितनी दूर दृष्टि जाती है, उतनी ही दूर तक तरंग, भङ्ग, प्रक्षिप्त फेन की रेखा, स्तूपीकृत विमल कुसुम-दामग्रथित माला की तरह बह धवल फेन-रेखा हेमकान्त सैकत पर न्यस्त हो रही है। काननकुण्डला धरणी के उपयुक्त अलकाभरण नील जलमण्डल के बीच सहस्रों स्थानों में भी फेन रहित तरङ्ग भङ्ग हो रहा था। यदि कभी इतना प्रचण्ड वायुवहन संभव हो कि उसके वेग से नक्षत्रमाला हजारों स्थानों से स्थानच्युत होकर नीलाम्बर में आन्दोलित होता रहे, तभी उस सागर तरङ्ग की विक्षिप्तता का स्वरूप दिखाई पड़ सकता है। इस समय अस्तगामी सूर्यकी मृदुल किरणों में नीले जल का एकांश द्रवीभूत सुवर्ण की तरह झलझला रहा था। बहुत दूर पर किसी यूरोपीय व्यापारी का जहाज सफेद डैने फैलाकर किसी बृहत् पक्षी की तरह सागर-वक्ष पर दौड़ा जा रहा था।

नवकुमार को उस समय इतना ज्ञान न था कि वह समुद्र के किनारे बैठकर कितनी देर तक सागर-सौन्दर्य निरखते रह गये। इसके बाद ही एकाएक प्रदोष काल का हलका अंधेरा सागरवक्ष पर आ पहुँचा। अब नवकुमारको चैतन्य हुआ कि आश्रयका स्थान खोज लेना होगा। यह ख्याल आते ही नवकुमार एक ठण्डी साँस लेकर उठ खड़े हुए। ठण्डी साँस उन्होंने क्यों ली, कहा नहीं जा सकता। उठकर वह समुद्र की तरफसे पलटे। ज्यों ही वह पलटे, वैसे ही उन्हें सामने एक अपूर्व मूर्ति दिखाई दी। उस गम्भीर नादकारी वारिधि के तटपर, विस्तृत बालुका भूमि पर संध्या की अस्पष्ट आभा में एक अपूर्व रमणीमूर्ति है। केशभार—अवेणी सम्बद्ध, संसर्पित, राशिकृत, आगुल्फलम्बित केशभार! उसके ऊपर देहरत्न, मानों चित्रपट के ऊपर चित्र सजा हो। अलकावली की प्रचुरता के कारण चेहरा पूरी तरहसे प्रकाश पा नहीं रहा था, फिर भी मेघाडम्बर के अन्दर से निकलने और झाँकने वाले चन्द्रमा की तरह वही चेहरा स्निग्ध उज्ज्वल प्रभा दिखा रहा था। विशाल लोचन, कटाक्ष अतीव स्थिर, अतीव स्निग्ध, गम्भीर और ज्योतिर्मय थे और वह कटाक्ष भी इस सागर जलपर स्निग्ध व चन्द्रबिम्ब की तरह खेल रहा था। रुक्ष केश राशि ने कन्धों और बाहुओं को एकदम छा लिया था। कन्धा तो बिल्कुल दिखाई ही नहीं पड़ता था। बाहुयुगल की विमल श्री कुछ-कुछ झलक रही थी। वर्ण अर्द्धचन्द्रनिःसृत कौमुदी वर्ण था; घने काले भौरे जैसे बाल थे। इन दोनों वर्णों के परस्पर शान्ति ध्येय से वह अपूर्व छटा दिखाई पड़ रही थी, जो उस सागरतट पर अर्द्धोज्ज्वल प्रभा में ही दिखाई पड़ सकती है, दूसरी जगह नहीं। रमणी देह, उसपर निरावरण थी। ऐसी ही वह मोहनी मूर्ति थी।

अकस्मात् ऐसे दुर्गम जङ्गल में ऐसी देवमूर्ति देखकर नवकुमार निस्पन्द और अवाक् हो रहे। उनके मुँह से वाणी न निकली—केवल एकटक देखते रह गये। वह रमणी भी स्पन्दनहीन, अनिमेषलोचन से एकटक नवकमार को देखती रह गयी।

अकस्मात् ऐसे दुर्गम जङ्गल में ऐसी देवमूर्ति देखकर नवकुमार निस्पन्द और अवाक् हो रहे। उनके मुँहसे वाणी न निकली—केवल एकटक देखते रह गये। वह रमणी भी स्पन्दनहीन, अनिमेषलोचनसे एकटक नवकमारको देखती रह गयी। दोनोंकी दृष्टिमें प्रभेद यह था कि नवकुमारकी दृष्टिमें आश्चर्य की भङ्गिमा थी और रमणीकी दृष्टिमें ऐसा कोई लक्षण न था, वरन उसकी दृष्टि स्थिर थी। फिर भी उस टष्टिमें उद्वेग था।

इस तरह उस अनन्त समुद्रके तटपर यह दोनों प्राणी बहुत देर तक ऐसी ही अवस्था में खड़े रहे। बहुत देर बाद रमणी कण्ठसे आवाज सुनाई पड़ी। बड़ी ही मीठी वाणी और सुरीले स्वरसे उसने पूछा—“पथिक? तुम राह भूल गये हो?”

इस कण्ठ-स्वरके साथ-साथ नवकुमारकी हृत्तन्त्री बज उठी। विचित्र हृदयका तन्त्रीयन्त्र समय-समयपर इस प्रकार लयहीन हो जाता है कि चाहें कितना भी यत्न किया जाये वापस मिलता नहीं—एक स्वर भी नहीं होता। किन्तु एक ही शब्दमें, रमणीकण्ठ सम्भूत स्वरसे वह संशोधित हो जाता है; सब तार लयविशिष्ट—समस्वर हो जाते हैं। मनुष्यजीवनमें उस क्षणमें ही सुखमय संगीत प्रवाहमय जान पड़ने लगता है। नवकुमारके कानोंमें भी ऐसे ही सुख-संगीतका प्रवाह बह गया।

“पथिक? तुम राह भूल गये हो?” यह ध्वनि नवकुमारके कानोंमें पहुँची। इसका क्या अर्थ है? क्या उत्तर देना होगा? नवकुमार कुछ भी समझ न सके। वह ध्वनि मानों हर्षविकम्पित होकर नाचने लगी। मानों पवनमें वह ध्वनि लहरियाँ लेने लगी। वृक्षोंके पत्तों तक में वह ध्वनि व्याप्त हो गयी। इसके सम्मुख मानों सागरनाद मन्द पड़ गया। सागर उन्मत्त; वसन्त काल; पृथ्वी सुन्दरी, रमणी सुन्दरी, ध्वनि भी सुन्दर, हृद्तन्त्रीमें सौन्दर्यकी लय उठने लगी।

रमणीने कोई उत्तर न पाकर कहा—‘मेरे साथ आओ।’ यह कहकर वह तरुणी चली। उसका पदक्षेप लक्ष्य न होता था। वसन्तकालकी मन्द वायुसे चालित शुभ्र मेघकी तरह वह धीरे-धीरे अलक्ष्य पादविक्षेपसे चली। नवकुमार मशीनकी पुतली की तरह साथ चले। राहमें एक छोटा-सा वन घूमकर जाना पड़ा। वनकी आड़में जानेपर फिर सुन्दरी दिखाई न दी। वन का चक्कर लगा लेनेपर नवकुमारने देखा कि सामने ही वह कुटी है।

   1
0 Comments